भारत ने हरित क्रांति के बाद अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल की है, और इसमें मध्यप्रदेश की भूमिका अहम रही है। यहां के किसान अनाज, तिलहन और दलहन के साथ अब उद्यानिकी फसलों की ओर भी बढ़ रहे हैं, जिससे उनकी आमदनी में इजाफा हुआ है। माइक्रो इरिगेशन, बिजली की उपलब्धता और आसान कर्ज ने इस बदलाव को संभव बनाया है।
मध्यप्रदेश में अब किसान ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती बड़े पैमाने पर कर रहे हैं। पहले यह फसल खरीफ मौसम में वर्षा आधारित खेती के रूप में होती थी, जिससे न केवल उपज अच्छी मिलती थी, बल्कि मिट्टी की उर्वरता भी बनी रहती थी, क्योंकि मूंग की जड़ों में नाइट्रोजन फिक्सिंग बैक्टीरिया पाए जाते हैं।
लेकिन अब गर्मियों में मूंग की खेती के कारण किसान अधिक सिंचाई कर रहे हैं, जिससे भूमिगत जल स्तर तेजी से घट रहा है। खेत तैयार करने के लिए कई किसान नरवाई जलाने की प्रक्रिया अपना रहे हैं, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ रहा है। इस पर राज्य सरकार ने रोक लगाई है और अब किसानों को नरवाई प्रबंधन का प्रशिक्षण देने की योजना है।
किसान मूंग की फसल जल्दी काटने के लिए खरपतवारनाशकों जैसे पैराक्वेट और ग्लाइफोसेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं। इससे उपज तो जल्दी मिलती है, लेकिन मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता खत्म हो रही है और कीटनाशकों के अवशेष खाने वालों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाल सकते हैं।
समाधान और सुझाव: डॉ. विजय सिंह तोमर (पूर्व कुलपति, कृषि विश्वविद्यालय) के अनुसार, किसानों को पर्यावरण अनुकूल खेती की ओर बढ़ने की जरूरत है।
डॉ. तोमर मानते हैं कि अगर डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन आज होते तो वे भी कहते कि अब खेती को सिर्फ उत्पादन नहीं, बल्कि पर्यावरण संतुलन और स्वास्थ्य सुरक्षा से भी जोड़कर देखना होगा।
निष्कर्ष: किसानों को अब ऐसी खेती अपनानी होगी जो उत्पादन के साथ-साथ जल संरक्षण, मिट्टी की गुणवत्ता और स्वास्थ्य का भी ध्यान रखे। राज्य सरकार और कृषि वैज्ञानिकों की मदद से टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना समय की ज़रूरत है।
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