सहजन (मोरिंगा) की एक विशेष किस्म ‘पीकेएम-1’ इस समय अफ्रीकी महाद्वीप के सेनेगल, रवांडा और मेडागास्कर जैसे देशों में किसानों की आय बढ़ाने और पोषण संकट से निपटने में अहम भूमिका निभा रही है। भारत में भी इस किस्म की खेती हो रही है, खासकर तमिलनाडु में, लेकिन इसके बावजूद भारतीय किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहा।
मोरिंगा ओलिफेरा की पीकेएम-1 किस्म में मौजूद पत्तियां और फूल मैक्रोन्यूट्रिएंट्स और माइक्रोन्यूट्रिएंट्स से भरपूर होते हैं। अफ्रीकी देशों में इनका उपयोग बच्चों में कुपोषण दूर करने के लिए किया जा रहा है। अखबार 'द हिंदू' की रिपोर्ट के अनुसार, यह किस्म तमिलनाडु में भी उगाई जाती है, लेकिन यहां के किसान अंतरराष्ट्रीय बाजार में मौजूद अवसरों का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।
तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले के पेरियाकुलम स्थित हॉर्टीकल्चर कॉलेज एवं रिसर्च इंस्टीट्यूट ने 1980 के दशक में पीकेएम-1 किस्म को विकसित किया था। पहले देश में मोरिंगा की छह देशी किस्में होती थीं, जो बारहमासी थीं, लेकिन व्यावसायिक दृष्टिकोण से व्यावहारिक नहीं मानी जाती थीं। अब पीकेएम-1 किस्म डिंडीगुल क्षेत्र में करीब 5,000 एकड़ में उगाई जा रही है।
सालाना 20 टन तक उपज, फिर भी बाजार की कमी: पीकेएम-1 एक वर्षीय फसल है, जो प्रति एकड़ 20 टन तक उपज देती है। यह किस्म छह महीने में फल देना शुरू कर देती है और तीन वर्षों तक अच्छी देखभाल के साथ भरपूर उपज देती है। कुछ पेड़ तो प्रति वर्ष 37 किलो तक सहजन की उपज दे सकते हैं। इसके बावजूद किसानों को उचित दाम नहीं मिल पा रहा क्योंकि क्षेत्र में न तो कोल्ड स्टोरेज है और न ही उपज को सुरक्षित रखने की कोई व्यवस्था।
प्रसंस्करण सुविधाओं का अभाव: इसके अलावा, सहजन के पत्तों को सब-प्रोडक्ट के रूप में मान्यता देने और उन्हें प्रोसेस कर पाउडर बनाने के लिए भी किया जाता है।
अब भी समय है—बाजार की पहचान और एकजुटता जरूरी: विशेषज्ञ मानते हैं कि सहजन के अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए किसानों को एकजुट करना और बाजारों की पहचान करना जरूरी है। यदि स्वयं सहायता समूहों को आवश्यक उपकरण और प्रशिक्षण मिल जाए तो वे पत्तियों का पाउडर बनाकर निर्यात कर सकते हैं और अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं।